नारी विमर्श >> दूसरी विदाई दूसरी विदाईमधुप शर्मा
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एक सामाजिक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
...तुम समझ नहीं पा रहे हो कमल। एक ओर ‘माँ’
है, धर्म-कर्म, नित्य-नियम, पूजा पाठ, छूआछूत, आचार विचार, रूढ़ियों और
संस्कारों की दीवारों से घिरी माँ, और दूसरी ओर मैं, पैदा करने वाली कोख
को बदल सकने में असमर्थ, भंगी की औलाद के ठप्पे को अपने माथे से मिटाने
में अशक्त, भंगी और ब्राह्मण के फ़र्क़ से भी अनभिज्ञ, चारों तरफ़ से
असहाय, अपनी ही कातरता और मजबूरी के घेरे में रहने के लिए बाध्य। मैं किसे
समझाऊँ और कैसे समझाऊँ अपनी लाचारी और बेचारगी ?...
...उसने दोनों कुहनियाँ खिड़की की सरदल पर टिका दीं और बाँहों का स्टैण्ड-सा बना कर दोनों हथेलियों के बीच में अपना चेहरा रख लिया। अब न उसने कमरे का छज्जा देखा और न आँखों-ही-आँखों में दोनों छज्जों के बीच की दूरी नापी, और न ज़मीन से छज्जे की ऊँचाई। वो देख रही थी इन सब से दूर, छोटे-बड़े पेड़ों की लम्बी-लम्बी परछाइयों को।...परछाइयाँ जो थोड़ी ही देर में पेड़ों का साथ छोड़ जाएँगी, परछाइयाँ जिन्हें थोड़ी ही देर में अँधेरा निगल जाएगा। परछाइयाँ जो...
...उसने दोनों कुहनियाँ खिड़की की सरदल पर टिका दीं और बाँहों का स्टैण्ड-सा बना कर दोनों हथेलियों के बीच में अपना चेहरा रख लिया। अब न उसने कमरे का छज्जा देखा और न आँखों-ही-आँखों में दोनों छज्जों के बीच की दूरी नापी, और न ज़मीन से छज्जे की ऊँचाई। वो देख रही थी इन सब से दूर, छोटे-बड़े पेड़ों की लम्बी-लम्बी परछाइयों को।...परछाइयाँ जो थोड़ी ही देर में पेड़ों का साथ छोड़ जाएँगी, परछाइयाँ जिन्हें थोड़ी ही देर में अँधेरा निगल जाएगा। परछाइयाँ जो...
-इसी पुस्तक से
रेडियो की तरंगों का एक अनूठा कलाकार जीवंत
हो उठता था
जिसके स्वर में, हर किरदार सीखना सिखाना ही था जीवन का ध्येय सोना-चाँदी
थे जिसके लिए हेय कला का प्रेमी, बढ़िया इनसान सबका हितैषी, कवि और
विद्वान जिसका संग-साथ सब के लिए गौरव, सम्मान किसी भी क़ीमत पर न खोया,
जिसने स्वाभिमान पंडित विनोद शर्मा था उस व्यक्तित्व का नाम थकी देह ने पा
लिया विश्राम ज़िन्दा रहेगा हमेशा, उसका नाम और काम मेरे उसी हमदम, मेरे
उसी दोस्त की पुण्य स्मृति को समर्पित है यह छोटा-सा सुमन
‘दूसरी
विदाई’
कुछ शब्द ये भी...
मेरी इस पुस्तक में दो रचनाओं का समावेश है। पहली है, ‘दूसरी विदाई’ नाम का एक लघु सामाजिक उपन्यास, जिसमें मैंने गांधीवाद के छूआछूत वाले अंग को ही छूने की कोशिश की है।
महात्मा गांधी के नाम और उनके काम की, आज की नई पीढ़ी को भी थोड़ी-बहुत जानकारी तो है ही। इस युग के इस अवतार ने अहिंसा का अस्त्र लेकर देश को आज़ादी तो दिलाई ही, छूआछूत के विरुद्ध जागृति पैदा करके भिन्न-भिन्न वर्गों और जातियों के बीच की खाइयों को पाटने और उन्हें एक सूत्र में बाँधने का भी प्रयास किया और काफ़ी हद तक वो प्रयास सफल भी रहा। जनता को एकता का महत्त्व समझाया।...लेकिन बहुत ही दुख और देश के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उनके जाते ही, उन्हीं के अनुयायियों में से अनेक ने, न सिर्फ़ उनके आदर्शों को ताक पर रख दिया, बल्कि वे अपनी-अपनी रोटी सेंकने के लालच में, भोली-भाली जनता को भ्रमित करके, वर्गों और जातियों के बीच की दूरियों को और भी चौड़ाने के कुकर्म में लग गए। लोभ, लालच और सत्ता की हवस ने उन्हें तो भ्रष्ट किया ही, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उन्होंने जनता में भी नफ़रत की चिंगारी को हवा दी, कभी जात-पात के नाम पर, कभी भाषा और प्रान्त के नाम पर और कभी ऊँच-नीच के बहाने।
आज के तेज़ी से बदलते हुए दौर में, मैंने अपने पाठकों में से कुछेक का ध्यान भी अपने अभिप्राय की ओर दिला सका तो उसे मैं एक बड़ी उपलब्धि मानूँगा।
मेरी दूसरी रचना है, ‘और एक दिन....’ जिसे आप एक लम्बी कहानी कह सकते हैं।
सुनंदा विलास के प्यार में अंधी होकर, पिता तुल्य अपने बड़े भाई की मर्ज़ी के ख़िलाफ़, मुम्बई चली तो आती है, पर यहाँ पहुँचकर ही उसे विलास की असलीयत का पता चलता है। विलास प्यार और भावुकता में नहीं, बल्कि स्वार्थ और व्यवहारिकता में विश्वास करता है। सुनंदा का भ्रम टूटता है। वो निराश तो बहुत होती है, पर टूटती नहीं। लौटती है, लेकिन लौटते समय ट्रेन की दुर्घटना उसे एक ऐसे मोड़ पर पहुँचा देती है कि उसका रास्ता ही नहीं, उसका भाग्य भी बदल जाता है...और बदलाव भी ऐसा कि जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की थी।
यह सब कैसे हुआ, कारण पाठकगण पढ़कर ही जानें तो अच्छा रहेगा। अभी से कुछ भी कहकर मैं उनकी उत्सुकता को कम नहीं करना चाहता।
पढ़ने के बाद आप इन दोनों रचनाओं के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिखिएगा ज़रूर। आपका आभार होगा।
अग्रिम धन्यवाद के साथ,
कुछ शब्द ये भी...
मेरी इस पुस्तक में दो रचनाओं का समावेश है। पहली है, ‘दूसरी विदाई’ नाम का एक लघु सामाजिक उपन्यास, जिसमें मैंने गांधीवाद के छूआछूत वाले अंग को ही छूने की कोशिश की है।
महात्मा गांधी के नाम और उनके काम की, आज की नई पीढ़ी को भी थोड़ी-बहुत जानकारी तो है ही। इस युग के इस अवतार ने अहिंसा का अस्त्र लेकर देश को आज़ादी तो दिलाई ही, छूआछूत के विरुद्ध जागृति पैदा करके भिन्न-भिन्न वर्गों और जातियों के बीच की खाइयों को पाटने और उन्हें एक सूत्र में बाँधने का भी प्रयास किया और काफ़ी हद तक वो प्रयास सफल भी रहा। जनता को एकता का महत्त्व समझाया।...लेकिन बहुत ही दुख और देश के लिए दुर्भाग्य की बात है कि उनके जाते ही, उन्हीं के अनुयायियों में से अनेक ने, न सिर्फ़ उनके आदर्शों को ताक पर रख दिया, बल्कि वे अपनी-अपनी रोटी सेंकने के लालच में, भोली-भाली जनता को भ्रमित करके, वर्गों और जातियों के बीच की दूरियों को और भी चौड़ाने के कुकर्म में लग गए। लोभ, लालच और सत्ता की हवस ने उन्हें तो भ्रष्ट किया ही, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए उन्होंने जनता में भी नफ़रत की चिंगारी को हवा दी, कभी जात-पात के नाम पर, कभी भाषा और प्रान्त के नाम पर और कभी ऊँच-नीच के बहाने।
आज के तेज़ी से बदलते हुए दौर में, मैंने अपने पाठकों में से कुछेक का ध्यान भी अपने अभिप्राय की ओर दिला सका तो उसे मैं एक बड़ी उपलब्धि मानूँगा।
मेरी दूसरी रचना है, ‘और एक दिन....’ जिसे आप एक लम्बी कहानी कह सकते हैं।
सुनंदा विलास के प्यार में अंधी होकर, पिता तुल्य अपने बड़े भाई की मर्ज़ी के ख़िलाफ़, मुम्बई चली तो आती है, पर यहाँ पहुँचकर ही उसे विलास की असलीयत का पता चलता है। विलास प्यार और भावुकता में नहीं, बल्कि स्वार्थ और व्यवहारिकता में विश्वास करता है। सुनंदा का भ्रम टूटता है। वो निराश तो बहुत होती है, पर टूटती नहीं। लौटती है, लेकिन लौटते समय ट्रेन की दुर्घटना उसे एक ऐसे मोड़ पर पहुँचा देती है कि उसका रास्ता ही नहीं, उसका भाग्य भी बदल जाता है...और बदलाव भी ऐसा कि जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की थी।
यह सब कैसे हुआ, कारण पाठकगण पढ़कर ही जानें तो अच्छा रहेगा। अभी से कुछ भी कहकर मैं उनकी उत्सुकता को कम नहीं करना चाहता।
पढ़ने के बाद आप इन दोनों रचनाओं के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिखिएगा ज़रूर। आपका आभार होगा।
अग्रिम धन्यवाद के साथ,
आपका
मधुप शर्मा
मधुप शर्मा
दूसरी विदाई
पिछले दो दिनों से गायत्री-निवास की छटा ही
कुछ निराली
दिखाई दे रही थी। दिन में फूलों की लड़ियों और झालरों से ढँकी, जैसे ब्याह
की वेदी, और शाम ढलते ही जहाँ रात ने अपनी साँवरी ओढनी लहराई और फूलों की
आभा सुरमई-सी होने लगी कि बिजली की नन्ही-नन्ही रोशनियाँ झिलमिलाने लगती
हैं। शाम की ख़ुशनुमा हवा में ऐसा लगता है जैसे लाखों-करोड़ों जुगनू
इकट्ठे होकर कोई जश्न मना रहे हैं, या आकाश गंगा का एक टुकड़ा लाकर,
परियों ने धरती पर धर दिया है।
गायत्री पंडिताइन कभी खिड़की का पट खोलकर उस शोभा को निहारती, कभी जल्दी-जल्दी डग भरती लॉन में जा पहुँचती और चारों तरफ़ का जायज़ा लेने के लिए फिरकनी-सी घूम जाती, आह्लाद से भरी, हँसती-मुस्कराती, जैसे वो बुढ़ापे के द्वार पर खड़ी प्रौढ़ा नहीं, बल्कि कोई मुग्धा नायिका हो, नव-यौवना, मन अँगड़ाइयाँ लेते हुए अनेक सपनों को सँजोए। फिर उसे ख़ुद ही अपनी इस हरकत पर लाज आ जाती, और वो अपनी साड़ी का पल्लू कस के बदन पर लपेटती हुई मंद-मंद डग भरने लगती। मुखड़े पर संपूर्ण संतुष्टि और अपार तृप्ति-सी छलकने लगती थी, जैसे सभी ओर से पूरी तरह अघाई हुई हो।
गायत्री पंडिताइन बरामदे के खंभे से पीठ टिकाए अपने गायत्री-निवास की छबि को निहार रही थी, मंत्र-मुग्ध-सी। देखते-देखते उसकी आँखें पथरा-सी गईं। देह बुत-सी बन के खड़ी रह गई, पर उसके मन-मस्तिष्क बरसों पहले की परतें पलटने लगे थे।...कितनी बहस हुई थी इस घर के नाम को लेकर, जब यह बना था। पतिदेव चाहते थे यह ‘गायत्री महल’ कहलाए। मैंने कहा था, हुँह् चार कमरे का मकान और महल ?...तुम नहीं समझोगी पंडिताइन। आदमी को सोच हमेशा ऊँची रखनी चाहिए। तुम देखना, हमारा कमल एक दिन इसी जगह पर महल खड़ा करेगा’।...‘तो उस दिन नाम भी अपने आप हो जाएगा ‘महल’। फ़िलहाल तो ये सपने देखना छोड़िए।’...‘कैसे छोड़ दें पंडिताइन ? कैसे भूल जाएँ कि हमारे बाप दादा राजपुरोहित थे और हमारा भी बचपन महलों के आसपास ही गुज़रा है। महलों की हवा तो हमारी साँसों में समाई हुई है। देखती नहीं हो तुम आज भी कोई चिट्ठी-पत्री आती है तो लोग लिखते हैं, पंडित बिहारी लाल जी शर्मा राजपुरोहित।’...‘इसमें इतना फूलने-अकड़ने की क्या बात है ? रजवाड़े नहीं रहे, और बहुत से राजा लोग तो ख़ुद भी महलों को छोड़ कर, दूसरे शहरों में फ़्लैटों में रहने लगे हैं, और आप अभी तक महलों की हवाओं में साँस ले रहे हैं। वैसे आप जानते ही हैं कि बाप-दादा मेरे भी राजपुरोहित थे और आप से बड़ी रियासत के।’...
राजपुरोहित जी ज़रा खिसियाने से हो आए थे। कुछ देर बाद ही कह पाए, ‘तो ठीक है, जैसा तुम चाहो वैसा ही करो। ‘गायत्री कुटीर’ अच्छा लगता है तो रख लो ‘गायत्री कुटीर’। मुझे तो कुटीर कहते ही झोंपड़ा दिखाई देता है, घास-फूँस का झोंपड़ा।’...‘तो मत रखिए न ‘कुटीर’। चलिए तो न महल न कुटीर, निवास शब्द भी क्या बुरा है।’....‘हाँ, अच्छा है। अच्छा रहेगा ‘गायत्री-निवास’।...‘पर मैं तो फिर आप से कहती हूँ, आप अपने नाम पर ही क्यों नहीं रखते मकान का नाम ?’ नहीं भागवान, हम उस बात पर विचार कर चुके हैं। बल्कि कमल के नाम पर भी सोचा था हमने। लेकिन ग्रहों नक्षत्रों को देखते हुए, तुम्हारे ही नाम का पहला अक्षर शुभ और कल्याणकारी है।’
तभी पास के कमरे में टेलीफ़ोन की घंटी घनघनाई थी। अर्धचेतना की सी अवस्था में गायत्री को लगा जैसे किसी मंदिर की सैकड़ों घंटियाँ और घड़ियाल एक साथ बज उठे हों। वो चौंक कर इधर-उधर निहारने लगी। वस्तु-स्थिति को समझने में उसे दो-चार क्षण तो ज़रूर लगे होंगे। वो तेज़ क़दम बढ़ाती हुई टेलीफ़ोन के नज़दीक पहुँची। चोग़ा उठाते ही मिसिज़ भारद्वाज की आवाज़ सुनाई दी, तो गायत्री ने कहा था, नमस्ते बहन जी...जी हाँ आपके भेजे हुए डेकोरेटर ने काम बहुत अच्छा किया है।...जी, हाँ बहन जी बाहर का डेकोरेशन उसने सब से पहले किया। भाई साहब को मेरी तरफ़ से बहुत-बहुत धन्यवाद कहिए।...नहीं-नहीं मैं तो करूँगी ही...अरे बहन जी, आप लोगों से नहीं तो और किस से कहूँगी। आपके होते तो मुझे रत्ती-भर भी चिन्ता नहीं है।...नहीं-नहीं, मैं अकेली कहाँ हूँ। आप सभी लोग तो हैं मेरे साथ।...ठीक है, शाम को आप और भाई साहब आ ही रहे हैं तो आप ही देख के बताइएगा किसी और चीज़ की ज़रूरत हो तो...जी हाँ मैं इन्तज़ार करूँगी।
पंडित बिहारी लाल और मंगल भारद्वाज के परिवारों की घनिष्ठता काफ़ी पुरानी है। बिहारी लाल ने जब बिलासपुर छोड़ने का विचार किया, तो मंगल के पिताश्री ने ही ज़ोर देकर उन्हें यहाँ ज़मीन का यह प्लॉट दिलवा दिया था। ओखले के पास यह ईश्वरनगर नया-नया बस रहा था उन दिनों। मंगल भारद्वाज के पिताश्री कुछ ही समय पहले यहाँ अपनी कोठी बनवा चुके थे। ‘गायत्री-निवास’ के बनवाने का काम भी उन्हीं के मार्ग दर्शन में हुआ था।
बहुत जल्दी ईश्वरनगर के घर-घर में पंडित बिहारी लाल और गायत्री शर्मा की गिनती जाने-पहचाने और आदर से लिए जाने वाले नामों में होने लगी। बिहारी लाल अपनी पंडिताई और ज्योतिष विद्या के लिए लोकप्रिय हुए तो गायत्री अपने घर पर साप्ताहिक संकीर्तन के लिए मशहूर हो गई। किसी भी घर में कोई पूजा-पाठ, शादी-ब्याह या कोई धार्मिक आयोजन हो, किसी बच्चे की कुण्डली बनवानी हो, लड़के की नौकरी या लड़की की शादी में आने वाली रुकावटों को निरस्त करने के लिए ग्रह शांति करवानी हो, तो सब को एक ही नाम याद आता था, पंडित बिहारी लाल। वो स्वभाव के भी बहुत ही स्नेहिल और सरल थे। जिससे भी एक बार मिलते वो अपना-सा हो के रह जाता।
गायत्री के कीर्तन की शुरूआत पड़ोस की तीन-चार वृद्घाओं से हुई थी। लेकिन उसके स्वर की मिठास और भगवान में उसकी श्रद्धा की सुंगध हवाओं ने घर-घर पहुँचा दी। कुछ ही सप्ताह में उसका आँगन खचाखच भरने लगा, और श्रोताओं में केवल वृद्धाएँ ही नहीं, बल्कि बच्चे, युवतियाँ, प्रौढ़ाएँ और कुछेक वृद्ध, अधेड़ पुरुष भी शामिल होने लगे थे। गायत्री ने कुछ अन्य महिलाओं और बालिकाओं को भी गायन में सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहित किया और बहुत थोड़े से समय में ही सामूहिक कीर्तन करने वाला एक बहुत ही अच्छा और बड़ा ग्रुप तैयार हो गया। फिर तो कोई कहती, बहन जी अगले सप्ताह तो कीर्तन हमारे यहाँ रखिए, और कोई और भी अधिकार भरे-स्वर में कहती, भाभी जी अगले महीने की पहली तारीख़ को तो कीर्तन आपने हमारे घर करना है। मैं अभी से कहे देती हूँ, हाँ। कोई हाथ जोड़ता हुआ आता, ‘‘देवी जी हमने भी एक छोटा-सा मकान बनवाया है। पंद्रह तारीख़ को ग्रह प्रवेश पर आपने ज़रूर आना है।’’ और फिर कुछ संकोच-भरे स्वर में जोड़ता, ‘‘उसी दिन कीर्तन के रूप में आपका आशीर्वाद भी मिल जाए तो हम उसे अपना बहुत बड़ा सौभाग्य समझेंगी।’’
गायत्री किसी को इन्कार नहीं करती थी। करे भी कैसे। वो तो मन ही मन इसे अपना सौभाग्य मानती थी कि उसे प्रभु भजन के इतने अवसर मिल रहे हैं, और इतने लोगों को प्रेरित करने का साधन बन रही है। शुरू-शुरू में उसे दो-एक दिन एक ही चिन्ता थी कि जब वो दूसरी जगह कीर्तन में व्यस्त होगी, तो दो साल के कमल को कौन सँभालेगा। लेकिन उसकी वो समस्या मुहल्ले की महिलाओं और बालक-बालिकाओं ने तुरन्त ही हल कर दी। इतना ध्यान रखते थे कमल का कि गायत्री स्वयं भी शायद रख न पाती।
चौकी पर रखी एक बड़ी-सी थाली में प्रतिष्ठित राधा-कृष्ण की संगमरमर की प्रतिमा के सामने बैठकर जब वो तानपूरा छेड़ती और आँखें बंद किए ध्यान-मग्न होकर भजन के बोल शुरू करती तो बहुत से बड़े-बूढ़े कहते, साक्षात मीरा है मीरा, आजकल की मीरा।
पाँच वर्ष पंख लगाकर उड़ गए। पता भी नहीं चला कब, कैसे, किधर। हर तरह का सुख, अपार संतोष, तृप्ति ही तृप्ति। लेकिन एक दिन अचानक ऐसा वज्रपात हुआ कि सुख से छलकता हुआ भाग्य का भाजन चकनाचूर हो गया और सारा सुख बरसात के पानी की तरह बह गया, देखते ही देखते, पलों में।
पंडित बिहारी लाल सवेरे ही दरियागंज गए थे किसी बड़े आयोजन में भागीदारी के लिए और दोपहर बाद उनकी लाश ही घर वापस आई।
जैसे ही शव-वाहिनी पंडित बिहारी लाल के घर के सामने आकर रुकी, कुछ पड़ोसी उत्सुकता वश दरवाज़े-खिड़कियों से झाँकने लगे थे। ड्राइवर ने मकान के मुख्य द्वार पर लगी नेम प्लेट पढ़ी और शववाहिनी का दरवाज़ा खोलकर सफ़ेद कपड़े में लिपटे, स्ट्रेचर पर लेटे शव को उतारने लगे तो कुछ पड़ोसी घरों से बाहर आ गए थे। गायत्री उस समय भीतरी कमरे में थी। थोड़ी ही देर पहले स्कूल से लौटे कमल को दूध पिला रही थी। जब परिसर के बाहरी दरवाज़े की खुलने की आवाज़ के साथ-साथ कुछ लोगों के दबे-दबे से स्वर उसके कानों में पड़े तो वो बरामदे में आई। हैरान परेशान। दिल में धुकधुकी-सी होने लगी अचानक। सिर चकराने लगा। बड़ी मुश्किल से उसकी जबान पर आया-‘‘यह....यह...यहाँ क्यों ?’’
शव-वाहिनी के साथ आए सिपाही ने आगे बढ़कर कहा-‘‘इसी घर के आदमी हैं। यह चिट्ठी मिली थी इनकी जेब में। आप पहचान लीजिए।’’
तब तक स्ट्रेचर नीचे रखा जा चुका था और एक आदमी ने लाश के मुँह पर से कपड़ा हटा दिया था।
गायत्री अपने पति के मुख की एक झलक ही देख पाई थी कि बेहोश हो गई। कुछ पड़ोसियों ने आगे बढ़कर उसे सँभाला। कमल भौचक्का-सा खड़ा यह सब देख रहा था। एक महिला ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे अपने साथ सटा लिया। कुछ लोगों ने बैठक में जगह करके लाश को अन्दर रखवाया। शव-वाहिनी का भाडा भी एक पड़ोसी ने चुकाया।
सिपाही ने एक पड़ोसी को बताया था, यह सड़क पार करते हुए एक तेज़ दौड़ती बस के सामने आ गए थे। अस्पताल पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ दिया। इनकी जेब में मिली इस चिट्ठी से यहाँ का पता मालूम हुआ। बस के ड्राइवर को गिरफ़्तार कर लिया गया है।
कुछ ही देर में अड़ोसियों-पड़ोसियों ने अपने आसपास के जान-पहचान वालों को टेलीफ़ोन कर दिए थे। जिसने भी सुना वो स्तब्ध रह गया। देखते ही देखते मानो सारा ईश्वरनगर गायत्री-निवास के आसपास सिमट आया हो।
घर, आँगन, आसपास की सारी सड़कें खचाखच भरी थीं। हरेक को उत्सुकता थी यह जानने की कि कब, क्या और कैसे हुआ, और कोशिश थी आगे बढ़कर अपनी आँखों से लाश को देख लेने की।
भारद्वाज दम्पति बमुश्किल अपने लिए रास्ता बनाते हुए अंदर तक पहुँचे, तो कुछ पुरुष लाश के इर्द-गिर्द बैठे थे। तीन-चार बुज़ुर्ग एक तरफ़ खड़े कुछ सलाह-मशविरा कर रहे थे। श्री भारद्वाज भी उन्हीं में जा शामिल हुए। श्रीमती भारद्वाज गायत्री को उस कमरे में न देख सीधी बैडरूम की तरफ़ बढ़ी। वहाँ भी भीड़ थी। डॉक्टर माथुर गायत्री का मुआयना कर चुका था। उसने उठते हुए कहा, ‘‘अचानक सदमे से बेहोश हो गई हैं। मैंने इन्जेक्शन लगा दिया है। आप प्लीज़ यहाँ इतनी भीड़ न करें। दो-तीन जनी इनके पास रहिए, बस। मैं भी बाहर ही हूँ। जैसे ही इन्हें होश आ जाए, मुझे बुला लीजिए।’’
श्री भारद्वाज और चौधरी रणवीरसिंह ने सारे इन्तज़ाम की कमान अपने हाथों में ले ली थी। सब से पहले तो बाहर उमड़ रही भीड़ को प्यार से समझाने और नियंत्रित करने के लिए चार आदमियों की ड्यूटी लगाई। अर्थी का सामान और बाकी ज़रूरी सामग्री की लिस्ट और कुछ रुपए देते हुए दो युवकों को उन्होंने हिदायत दी कि सारी चीज़ें लाकर रख लें। उसके बाद उन्होंने पंडित जी की डायरी देखकर कुछ ख़ास-ख़ास लोगों को उस दुर्घटना की सूचना दी। गायत्री के एक ममेरे भाई पहाड़गंज में रहते थे। उनका टेलीफ़ोन नम्बर नहीं मिला तो एक लड़के को उनका पता देकर मोटर साइकिल पर वहाँ भेजा। डॉक्टर माथुर के पास जाकर पूछा था, ‘‘आपको क्या लगता है, गायत्रीजी को होश आने में...’’
‘‘मैं समझता हूँ आधे-पौन घंटे में होश आ जाना चाहिए।’’
‘‘उनके होश में आने से पहले पंडितजी की अंतिम यात्रा का कोई समय भी तो तय नहीं किया जा सकता।’’ रणवीर सिंह बोले थे।
श्री भारद्वाज ने कहा, ‘‘मुझे तो लगता है, अर्थी कल सवेरे ही उठाई जा सकेगी।’’
‘‘हाँ, दिन छिपे बाद उठाते भी तो नहीं।’’
डॉक्टर माथुर बोले, ‘‘मैं जाकर फिर इग्ज़ामिन करता हूँ।’’
रणवीर सिंह ने सलाह दी-‘‘मेरा तो ख़्याल है, आपको उनके पास ही बैठना चाहिए डॉक्टर माथुर।’’
लगभग दो घंटे के बाद गायत्री के होश में आने के आसार दिखाई दिए। पहले उसके होंठों में फड़फड़ाहट-सी नज़र आई, फिर पपोटों में मामूली-सी हरकत हुई, एक लम्बी सी साँस ली, और धीरे-धीरे आँखें खोलीं। फटी-फटी निगाहों से वो कुछ देर तो छत को निहारती रही, फिर कुछ हैरानी से इधर-उधर देखा, और फुर्ती से उठकर बैठ गई। दूसरे ही पल उसने अपने ऊपर की चादर को दूर फेंका और बड़ी तेज़ी के साथ कमरे से बाहर चली गई। डॉक्टर माथुर और कुछ महिलाएँ उसके पीछे-पीछे थीं।
गायत्री ड्राइंगरूम के दरवाज़े की चौखट से सिर टिकाए खड़ी थी। एक-दम स्तब्ध, सहमी-सहमी निश्चल और चेतनाहीन-सी कमरे के बीचोंबीच पंडित जी की लाश सफ़ेद कपड़े में लिपटी पड़ी थी। चेहरे पर से कपड़ा हटा हुआ था। सिरहाने एक थाली में रखे दीए की लौ टिमटिमा रही थी। गायत्री को देखकर कमरे में बैठे लोगों में थोड़ी हलचल हुई और सारी निगाहें उसी पर जा टिकीं। उसके चेहरे की भावहीनता को देखते हुए डॉक्टर माथुर को डर था कि कहीं वो फिर बेहोश न हो जाए। एक बार खुल के रो ले तो मन का बोझ कुछ हल्का हो जाएगा। उसने गायत्री के दोनों कंधे थामते हुए कहा, ‘‘आप यहाँ बैठ जाएँ भाभी जी।’’ वो धकियाई हुई सी लाश के पास बैठ तो गई, लेकिन उसी तरह काठमारी-सी, जो न कुछ सुन रही है, न देख रही है, न समझ रही है। डॉक्टर को आशा थी कि अब कुछ प्रतिक्रिया होगी, पर वो उसी तरह संज्ञाहीन-सी बनी रही तो उसने कुछ महिलाओं को धीमे स्वर में कहा, ‘‘आप इससे कुछ बात कीजिए।’’
एक प्रौढ़ा गायत्री के पास सरकते हुए कंधे पर हाथ रखकर बोली, ‘‘जो हुआ वो बहुत बुरा हुआ गायत्री, पर होनी को तो कोई टाल नहीं सकता।’’ एक और बुज़ुर्ग महिला ने कहा, ‘‘अब अपने आपको सँभाल बेटी, तेरे आगे सारी ज़िन्दगी पड़ी है। जीवन-मरण तो भगवान की लीला है।’’ एक अन्य औरत ने अपनी पंजाबीनुमा हिन्दी में दिलासा दिया, ‘‘अम्मा जी ठीक कह रही हैं भैणजी। तुसीं ताँ खुद ज्ञानी-ध्यानी हौं, वाहे गुरु दी मरजी दे सामणे, आदमी दा बस कित्थे चल दै।’’
कई औरतों ने अपने-अपने ढंग से समझाने और सांत्वना देने की कोशिश की, लेकिन गायत्री उसी तरह बुत-सी बनी रही। एकदम निश्चिल, अपलक, बौराई-सी। माथुर की निगाहें उसी के चेहरे पर थीं। उसकी चिन्ता कुछ बढ़ने लगी थी। वो सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाये, जब महिलाओं के बीच में रास्ता बनाता हुआ कमल अपनी माँ के पास आ गया। हैरानी और परेशानी उसके चेहरे पर भी झलक रही थी। पीछे से माँ के गले में बाँहें डाल दीं। कंधे पर ठोड़ी टिकाकर बोला, ‘‘पिताजी को क्या हुआ है माँ ? वो ज़मीन पर क्यों लेटे हैं ?...और घर में ये इतने सारे लोग...दिन में इस वक्त तो पिताजी कभी नहीं सोते...तू भी ऐसे क्यों बैठी है चुपचाप ? उन्हें कहती क्यों नहीं कि बहुत थके हैं तो चलकर पलंग पर सोयें...चल उठ, पिताजी को भी जगा।...तू कुछ बोलती क्यों नहीं ? गुस्सा है मेरे से ? मैंने तो आज कोई भी गंदा काम नहीं किया।...सवेरे ही नहा लिया था...स्कूल से आके दूध भी झट पी लिया था, फिर क्यों नाराज़ है ?..कुछ बोल न माँ।...’’
माँ कुछ नहीं बोली, तो बालक का मुँह उतर गया। उसकी हैरानी और परेशानी और भी ज़्यादा बढ़ गई थी। उसकी उदास आँखें डबडबा आईं। माँ के कंधों पर अपनी बाँहों की पकड़ ढीली करके वो सीधा खड़ा हो गया। उसका एक हाथ अब भी माँ के कंधे पर था। गहरी उदासी भरे-स्वर में बोला, ‘‘तो क्या धरमा सच कह रहा था माँ कि मेरे पिताजी को ऊपर वाले भगवान ने बुला लिया है ? यहाँ नीचे वाले भगवान को तू रोज़ पूजा करती है, चल के कहती क्यों नहीं उनसे कि वो ऊपर वाले भगवान से कहें, हमारे पिताजी को वापस कर दें। तेरी बात को टालेंगे थोड़े ही...कितने-कितने भजन गाती है तू तो उनके...कितने भगवान हैं ये माँ ? ऊपर वाले, नीचे वाले ? मैं गया था तेरे भगवान के पास...मेरी बात नहीं मानी...बच्चा समझकर टाल दिया होगा, जैसे कई बार तू और पिताजी भी तो कह देते हैं, तू अभी बच्चा है...’’
काफ़ी देर के बाद गायत्री के चेहरे पर पहली बार ज़रा जुंबिश नज़र आई। उसके होंठ थोड़े हिले, उसकी आँखें डबडबा आईं, उसका दायाँ हाथ धीरे-धीरे अपने बाएँ कंधे की तरफ़ बढ़ा और कमल के हाथ पर हल्का-सा दबाव पड़ा।
कमल की आँखें बरसने लगी थीं। वो बोला, ‘‘अब उठ न माँ, चल अपने भगवान के पास..अब तू नहीं उठेगी तो देख लेना मैं भी....’’
बिजली की सी तेज़ी के साथ, गायत्री ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपनी तरफ खींचा और कस के सीने से लगा लिया। उसके भीतर का बाँध टूट गया था। उसकी आँखें बरसने लगीं, और वो इतने ज़ोर से बुक्का फाड़ के रोई कि सारा वातावरण थरथरा गया। कुछ देर बाद कमल को अपनी गोद में लिटाकर बार-बार उसे चूमने लगी। चूमती रही बौराई-सी ! बेटे के आँसुओं में अपने आँसू मिलाती रही बड़ी देर तक। आसपास भी कोई आँख ऐसी नहीं थी जो नम न हुई हो। डॉक्टर माथुर की भी नहीं, पर उसकी आँखों में आँसुओं के साथ-साथ संतोष की झलक भी थी।
अगले दिन ग्यारह बजे के क़रीब शवयात्रा शुरू हुई। कई बड़े-बूढ़ों का कहना था कि किसी अर्थी के साथ उन्होंने इतनी जनता आज तक नहीं देखी।
तेरहवें दिन पंडित मुकंदी लाल रस्म अदायगी और हवन करवा चुके तो गायत्री ने उपस्थिति लोगों के सामने हाथ जोड़कर कहा था, ‘‘पिछले कुछ दिनों में मेरे अनेक हितैषियों ने कहा है कि मैं अपने आपको अकेली न समझूँ, वे सब मेरे साथ हैं। आपके अपार स्नेह और आशीर्वाद ने मुझे सचमुच बहुत ही बल दिया है, शारीरिक भी और मानसिक भी। वरना उस दिन जब भगवान ने अचानक पति का सहारा मुझ से छीन लिया, तो मैं सचमुच टूट गई थी, लेकिन आप लोगों के अपनेपन के सहारे ने मुझे फिर से खड़ा तो किया ही है मुझ में जीने की नई प्रेरणा फूँकी है, और जीवन की चुनौतियों का सामना करने का साहस भी मुझे दिया है। इसके लिए मैं हमेशा आप सबकी ऋणी रहूँगी। मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में भी मैं आप सब के स्नेह और आशीर्वाद का पात्र बनी रहूँगी।...जैसा कि अभी-अभी पंडित जी ने कहा, मरता केवल शरीर है, आत्मा नहीं। वो तो सिर्फ़ चोला बदलती है। आज मैं महसूस करती हूँ कि मेरे दिवंगत पति का प्यार ही चोला बदलकर आप लोगों के अपनेपन के रूप में हज़ारों गुना होकर मुझे मिल गया है। पंडित जी ने यह भी कहा था कि जीवनधारा निरंतर बहती रहती है, कभी रुकती नहीं, रुकनी भी नहीं चाहिए। इस अवसर पर मैं आपको विश्वास दिलाना चाहती हूँ कि जब तक ईश्वर की इच्छा है, मैं भी अपने जीवन प्रवाह को बहता रखने के लिए अपनी कोशिशों में कमी नहीं आने दूँगी। फ़िलहाल मैंने निर्णय लिया है कि अगले रविवार से कीर्तन का कार्यक्रम पहले की तरह ही जारी रहेगा। आपका साथ और सहयोग मुझे मिलता रहेगा, इसमें रत्ती-भर भी सन्देह नहीं। प्रणाम।’’
गायत्री पंडिताइन कभी खिड़की का पट खोलकर उस शोभा को निहारती, कभी जल्दी-जल्दी डग भरती लॉन में जा पहुँचती और चारों तरफ़ का जायज़ा लेने के लिए फिरकनी-सी घूम जाती, आह्लाद से भरी, हँसती-मुस्कराती, जैसे वो बुढ़ापे के द्वार पर खड़ी प्रौढ़ा नहीं, बल्कि कोई मुग्धा नायिका हो, नव-यौवना, मन अँगड़ाइयाँ लेते हुए अनेक सपनों को सँजोए। फिर उसे ख़ुद ही अपनी इस हरकत पर लाज आ जाती, और वो अपनी साड़ी का पल्लू कस के बदन पर लपेटती हुई मंद-मंद डग भरने लगती। मुखड़े पर संपूर्ण संतुष्टि और अपार तृप्ति-सी छलकने लगती थी, जैसे सभी ओर से पूरी तरह अघाई हुई हो।
गायत्री पंडिताइन बरामदे के खंभे से पीठ टिकाए अपने गायत्री-निवास की छबि को निहार रही थी, मंत्र-मुग्ध-सी। देखते-देखते उसकी आँखें पथरा-सी गईं। देह बुत-सी बन के खड़ी रह गई, पर उसके मन-मस्तिष्क बरसों पहले की परतें पलटने लगे थे।...कितनी बहस हुई थी इस घर के नाम को लेकर, जब यह बना था। पतिदेव चाहते थे यह ‘गायत्री महल’ कहलाए। मैंने कहा था, हुँह् चार कमरे का मकान और महल ?...तुम नहीं समझोगी पंडिताइन। आदमी को सोच हमेशा ऊँची रखनी चाहिए। तुम देखना, हमारा कमल एक दिन इसी जगह पर महल खड़ा करेगा’।...‘तो उस दिन नाम भी अपने आप हो जाएगा ‘महल’। फ़िलहाल तो ये सपने देखना छोड़िए।’...‘कैसे छोड़ दें पंडिताइन ? कैसे भूल जाएँ कि हमारे बाप दादा राजपुरोहित थे और हमारा भी बचपन महलों के आसपास ही गुज़रा है। महलों की हवा तो हमारी साँसों में समाई हुई है। देखती नहीं हो तुम आज भी कोई चिट्ठी-पत्री आती है तो लोग लिखते हैं, पंडित बिहारी लाल जी शर्मा राजपुरोहित।’...‘इसमें इतना फूलने-अकड़ने की क्या बात है ? रजवाड़े नहीं रहे, और बहुत से राजा लोग तो ख़ुद भी महलों को छोड़ कर, दूसरे शहरों में फ़्लैटों में रहने लगे हैं, और आप अभी तक महलों की हवाओं में साँस ले रहे हैं। वैसे आप जानते ही हैं कि बाप-दादा मेरे भी राजपुरोहित थे और आप से बड़ी रियासत के।’...
राजपुरोहित जी ज़रा खिसियाने से हो आए थे। कुछ देर बाद ही कह पाए, ‘तो ठीक है, जैसा तुम चाहो वैसा ही करो। ‘गायत्री कुटीर’ अच्छा लगता है तो रख लो ‘गायत्री कुटीर’। मुझे तो कुटीर कहते ही झोंपड़ा दिखाई देता है, घास-फूँस का झोंपड़ा।’...‘तो मत रखिए न ‘कुटीर’। चलिए तो न महल न कुटीर, निवास शब्द भी क्या बुरा है।’....‘हाँ, अच्छा है। अच्छा रहेगा ‘गायत्री-निवास’।...‘पर मैं तो फिर आप से कहती हूँ, आप अपने नाम पर ही क्यों नहीं रखते मकान का नाम ?’ नहीं भागवान, हम उस बात पर विचार कर चुके हैं। बल्कि कमल के नाम पर भी सोचा था हमने। लेकिन ग्रहों नक्षत्रों को देखते हुए, तुम्हारे ही नाम का पहला अक्षर शुभ और कल्याणकारी है।’
तभी पास के कमरे में टेलीफ़ोन की घंटी घनघनाई थी। अर्धचेतना की सी अवस्था में गायत्री को लगा जैसे किसी मंदिर की सैकड़ों घंटियाँ और घड़ियाल एक साथ बज उठे हों। वो चौंक कर इधर-उधर निहारने लगी। वस्तु-स्थिति को समझने में उसे दो-चार क्षण तो ज़रूर लगे होंगे। वो तेज़ क़दम बढ़ाती हुई टेलीफ़ोन के नज़दीक पहुँची। चोग़ा उठाते ही मिसिज़ भारद्वाज की आवाज़ सुनाई दी, तो गायत्री ने कहा था, नमस्ते बहन जी...जी हाँ आपके भेजे हुए डेकोरेटर ने काम बहुत अच्छा किया है।...जी, हाँ बहन जी बाहर का डेकोरेशन उसने सब से पहले किया। भाई साहब को मेरी तरफ़ से बहुत-बहुत धन्यवाद कहिए।...नहीं-नहीं मैं तो करूँगी ही...अरे बहन जी, आप लोगों से नहीं तो और किस से कहूँगी। आपके होते तो मुझे रत्ती-भर भी चिन्ता नहीं है।...नहीं-नहीं, मैं अकेली कहाँ हूँ। आप सभी लोग तो हैं मेरे साथ।...ठीक है, शाम को आप और भाई साहब आ ही रहे हैं तो आप ही देख के बताइएगा किसी और चीज़ की ज़रूरत हो तो...जी हाँ मैं इन्तज़ार करूँगी।
पंडित बिहारी लाल और मंगल भारद्वाज के परिवारों की घनिष्ठता काफ़ी पुरानी है। बिहारी लाल ने जब बिलासपुर छोड़ने का विचार किया, तो मंगल के पिताश्री ने ही ज़ोर देकर उन्हें यहाँ ज़मीन का यह प्लॉट दिलवा दिया था। ओखले के पास यह ईश्वरनगर नया-नया बस रहा था उन दिनों। मंगल भारद्वाज के पिताश्री कुछ ही समय पहले यहाँ अपनी कोठी बनवा चुके थे। ‘गायत्री-निवास’ के बनवाने का काम भी उन्हीं के मार्ग दर्शन में हुआ था।
बहुत जल्दी ईश्वरनगर के घर-घर में पंडित बिहारी लाल और गायत्री शर्मा की गिनती जाने-पहचाने और आदर से लिए जाने वाले नामों में होने लगी। बिहारी लाल अपनी पंडिताई और ज्योतिष विद्या के लिए लोकप्रिय हुए तो गायत्री अपने घर पर साप्ताहिक संकीर्तन के लिए मशहूर हो गई। किसी भी घर में कोई पूजा-पाठ, शादी-ब्याह या कोई धार्मिक आयोजन हो, किसी बच्चे की कुण्डली बनवानी हो, लड़के की नौकरी या लड़की की शादी में आने वाली रुकावटों को निरस्त करने के लिए ग्रह शांति करवानी हो, तो सब को एक ही नाम याद आता था, पंडित बिहारी लाल। वो स्वभाव के भी बहुत ही स्नेहिल और सरल थे। जिससे भी एक बार मिलते वो अपना-सा हो के रह जाता।
गायत्री के कीर्तन की शुरूआत पड़ोस की तीन-चार वृद्घाओं से हुई थी। लेकिन उसके स्वर की मिठास और भगवान में उसकी श्रद्धा की सुंगध हवाओं ने घर-घर पहुँचा दी। कुछ ही सप्ताह में उसका आँगन खचाखच भरने लगा, और श्रोताओं में केवल वृद्धाएँ ही नहीं, बल्कि बच्चे, युवतियाँ, प्रौढ़ाएँ और कुछेक वृद्ध, अधेड़ पुरुष भी शामिल होने लगे थे। गायत्री ने कुछ अन्य महिलाओं और बालिकाओं को भी गायन में सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहित किया और बहुत थोड़े से समय में ही सामूहिक कीर्तन करने वाला एक बहुत ही अच्छा और बड़ा ग्रुप तैयार हो गया। फिर तो कोई कहती, बहन जी अगले सप्ताह तो कीर्तन हमारे यहाँ रखिए, और कोई और भी अधिकार भरे-स्वर में कहती, भाभी जी अगले महीने की पहली तारीख़ को तो कीर्तन आपने हमारे घर करना है। मैं अभी से कहे देती हूँ, हाँ। कोई हाथ जोड़ता हुआ आता, ‘‘देवी जी हमने भी एक छोटा-सा मकान बनवाया है। पंद्रह तारीख़ को ग्रह प्रवेश पर आपने ज़रूर आना है।’’ और फिर कुछ संकोच-भरे स्वर में जोड़ता, ‘‘उसी दिन कीर्तन के रूप में आपका आशीर्वाद भी मिल जाए तो हम उसे अपना बहुत बड़ा सौभाग्य समझेंगी।’’
गायत्री किसी को इन्कार नहीं करती थी। करे भी कैसे। वो तो मन ही मन इसे अपना सौभाग्य मानती थी कि उसे प्रभु भजन के इतने अवसर मिल रहे हैं, और इतने लोगों को प्रेरित करने का साधन बन रही है। शुरू-शुरू में उसे दो-एक दिन एक ही चिन्ता थी कि जब वो दूसरी जगह कीर्तन में व्यस्त होगी, तो दो साल के कमल को कौन सँभालेगा। लेकिन उसकी वो समस्या मुहल्ले की महिलाओं और बालक-बालिकाओं ने तुरन्त ही हल कर दी। इतना ध्यान रखते थे कमल का कि गायत्री स्वयं भी शायद रख न पाती।
चौकी पर रखी एक बड़ी-सी थाली में प्रतिष्ठित राधा-कृष्ण की संगमरमर की प्रतिमा के सामने बैठकर जब वो तानपूरा छेड़ती और आँखें बंद किए ध्यान-मग्न होकर भजन के बोल शुरू करती तो बहुत से बड़े-बूढ़े कहते, साक्षात मीरा है मीरा, आजकल की मीरा।
पाँच वर्ष पंख लगाकर उड़ गए। पता भी नहीं चला कब, कैसे, किधर। हर तरह का सुख, अपार संतोष, तृप्ति ही तृप्ति। लेकिन एक दिन अचानक ऐसा वज्रपात हुआ कि सुख से छलकता हुआ भाग्य का भाजन चकनाचूर हो गया और सारा सुख बरसात के पानी की तरह बह गया, देखते ही देखते, पलों में।
पंडित बिहारी लाल सवेरे ही दरियागंज गए थे किसी बड़े आयोजन में भागीदारी के लिए और दोपहर बाद उनकी लाश ही घर वापस आई।
जैसे ही शव-वाहिनी पंडित बिहारी लाल के घर के सामने आकर रुकी, कुछ पड़ोसी उत्सुकता वश दरवाज़े-खिड़कियों से झाँकने लगे थे। ड्राइवर ने मकान के मुख्य द्वार पर लगी नेम प्लेट पढ़ी और शववाहिनी का दरवाज़ा खोलकर सफ़ेद कपड़े में लिपटे, स्ट्रेचर पर लेटे शव को उतारने लगे तो कुछ पड़ोसी घरों से बाहर आ गए थे। गायत्री उस समय भीतरी कमरे में थी। थोड़ी ही देर पहले स्कूल से लौटे कमल को दूध पिला रही थी। जब परिसर के बाहरी दरवाज़े की खुलने की आवाज़ के साथ-साथ कुछ लोगों के दबे-दबे से स्वर उसके कानों में पड़े तो वो बरामदे में आई। हैरान परेशान। दिल में धुकधुकी-सी होने लगी अचानक। सिर चकराने लगा। बड़ी मुश्किल से उसकी जबान पर आया-‘‘यह....यह...यहाँ क्यों ?’’
शव-वाहिनी के साथ आए सिपाही ने आगे बढ़कर कहा-‘‘इसी घर के आदमी हैं। यह चिट्ठी मिली थी इनकी जेब में। आप पहचान लीजिए।’’
तब तक स्ट्रेचर नीचे रखा जा चुका था और एक आदमी ने लाश के मुँह पर से कपड़ा हटा दिया था।
गायत्री अपने पति के मुख की एक झलक ही देख पाई थी कि बेहोश हो गई। कुछ पड़ोसियों ने आगे बढ़कर उसे सँभाला। कमल भौचक्का-सा खड़ा यह सब देख रहा था। एक महिला ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे अपने साथ सटा लिया। कुछ लोगों ने बैठक में जगह करके लाश को अन्दर रखवाया। शव-वाहिनी का भाडा भी एक पड़ोसी ने चुकाया।
सिपाही ने एक पड़ोसी को बताया था, यह सड़क पार करते हुए एक तेज़ दौड़ती बस के सामने आ गए थे। अस्पताल पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ दिया। इनकी जेब में मिली इस चिट्ठी से यहाँ का पता मालूम हुआ। बस के ड्राइवर को गिरफ़्तार कर लिया गया है।
कुछ ही देर में अड़ोसियों-पड़ोसियों ने अपने आसपास के जान-पहचान वालों को टेलीफ़ोन कर दिए थे। जिसने भी सुना वो स्तब्ध रह गया। देखते ही देखते मानो सारा ईश्वरनगर गायत्री-निवास के आसपास सिमट आया हो।
घर, आँगन, आसपास की सारी सड़कें खचाखच भरी थीं। हरेक को उत्सुकता थी यह जानने की कि कब, क्या और कैसे हुआ, और कोशिश थी आगे बढ़कर अपनी आँखों से लाश को देख लेने की।
भारद्वाज दम्पति बमुश्किल अपने लिए रास्ता बनाते हुए अंदर तक पहुँचे, तो कुछ पुरुष लाश के इर्द-गिर्द बैठे थे। तीन-चार बुज़ुर्ग एक तरफ़ खड़े कुछ सलाह-मशविरा कर रहे थे। श्री भारद्वाज भी उन्हीं में जा शामिल हुए। श्रीमती भारद्वाज गायत्री को उस कमरे में न देख सीधी बैडरूम की तरफ़ बढ़ी। वहाँ भी भीड़ थी। डॉक्टर माथुर गायत्री का मुआयना कर चुका था। उसने उठते हुए कहा, ‘‘अचानक सदमे से बेहोश हो गई हैं। मैंने इन्जेक्शन लगा दिया है। आप प्लीज़ यहाँ इतनी भीड़ न करें। दो-तीन जनी इनके पास रहिए, बस। मैं भी बाहर ही हूँ। जैसे ही इन्हें होश आ जाए, मुझे बुला लीजिए।’’
श्री भारद्वाज और चौधरी रणवीरसिंह ने सारे इन्तज़ाम की कमान अपने हाथों में ले ली थी। सब से पहले तो बाहर उमड़ रही भीड़ को प्यार से समझाने और नियंत्रित करने के लिए चार आदमियों की ड्यूटी लगाई। अर्थी का सामान और बाकी ज़रूरी सामग्री की लिस्ट और कुछ रुपए देते हुए दो युवकों को उन्होंने हिदायत दी कि सारी चीज़ें लाकर रख लें। उसके बाद उन्होंने पंडित जी की डायरी देखकर कुछ ख़ास-ख़ास लोगों को उस दुर्घटना की सूचना दी। गायत्री के एक ममेरे भाई पहाड़गंज में रहते थे। उनका टेलीफ़ोन नम्बर नहीं मिला तो एक लड़के को उनका पता देकर मोटर साइकिल पर वहाँ भेजा। डॉक्टर माथुर के पास जाकर पूछा था, ‘‘आपको क्या लगता है, गायत्रीजी को होश आने में...’’
‘‘मैं समझता हूँ आधे-पौन घंटे में होश आ जाना चाहिए।’’
‘‘उनके होश में आने से पहले पंडितजी की अंतिम यात्रा का कोई समय भी तो तय नहीं किया जा सकता।’’ रणवीर सिंह बोले थे।
श्री भारद्वाज ने कहा, ‘‘मुझे तो लगता है, अर्थी कल सवेरे ही उठाई जा सकेगी।’’
‘‘हाँ, दिन छिपे बाद उठाते भी तो नहीं।’’
डॉक्टर माथुर बोले, ‘‘मैं जाकर फिर इग्ज़ामिन करता हूँ।’’
रणवीर सिंह ने सलाह दी-‘‘मेरा तो ख़्याल है, आपको उनके पास ही बैठना चाहिए डॉक्टर माथुर।’’
लगभग दो घंटे के बाद गायत्री के होश में आने के आसार दिखाई दिए। पहले उसके होंठों में फड़फड़ाहट-सी नज़र आई, फिर पपोटों में मामूली-सी हरकत हुई, एक लम्बी सी साँस ली, और धीरे-धीरे आँखें खोलीं। फटी-फटी निगाहों से वो कुछ देर तो छत को निहारती रही, फिर कुछ हैरानी से इधर-उधर देखा, और फुर्ती से उठकर बैठ गई। दूसरे ही पल उसने अपने ऊपर की चादर को दूर फेंका और बड़ी तेज़ी के साथ कमरे से बाहर चली गई। डॉक्टर माथुर और कुछ महिलाएँ उसके पीछे-पीछे थीं।
गायत्री ड्राइंगरूम के दरवाज़े की चौखट से सिर टिकाए खड़ी थी। एक-दम स्तब्ध, सहमी-सहमी निश्चल और चेतनाहीन-सी कमरे के बीचोंबीच पंडित जी की लाश सफ़ेद कपड़े में लिपटी पड़ी थी। चेहरे पर से कपड़ा हटा हुआ था। सिरहाने एक थाली में रखे दीए की लौ टिमटिमा रही थी। गायत्री को देखकर कमरे में बैठे लोगों में थोड़ी हलचल हुई और सारी निगाहें उसी पर जा टिकीं। उसके चेहरे की भावहीनता को देखते हुए डॉक्टर माथुर को डर था कि कहीं वो फिर बेहोश न हो जाए। एक बार खुल के रो ले तो मन का बोझ कुछ हल्का हो जाएगा। उसने गायत्री के दोनों कंधे थामते हुए कहा, ‘‘आप यहाँ बैठ जाएँ भाभी जी।’’ वो धकियाई हुई सी लाश के पास बैठ तो गई, लेकिन उसी तरह काठमारी-सी, जो न कुछ सुन रही है, न देख रही है, न समझ रही है। डॉक्टर को आशा थी कि अब कुछ प्रतिक्रिया होगी, पर वो उसी तरह संज्ञाहीन-सी बनी रही तो उसने कुछ महिलाओं को धीमे स्वर में कहा, ‘‘आप इससे कुछ बात कीजिए।’’
एक प्रौढ़ा गायत्री के पास सरकते हुए कंधे पर हाथ रखकर बोली, ‘‘जो हुआ वो बहुत बुरा हुआ गायत्री, पर होनी को तो कोई टाल नहीं सकता।’’ एक और बुज़ुर्ग महिला ने कहा, ‘‘अब अपने आपको सँभाल बेटी, तेरे आगे सारी ज़िन्दगी पड़ी है। जीवन-मरण तो भगवान की लीला है।’’ एक अन्य औरत ने अपनी पंजाबीनुमा हिन्दी में दिलासा दिया, ‘‘अम्मा जी ठीक कह रही हैं भैणजी। तुसीं ताँ खुद ज्ञानी-ध्यानी हौं, वाहे गुरु दी मरजी दे सामणे, आदमी दा बस कित्थे चल दै।’’
कई औरतों ने अपने-अपने ढंग से समझाने और सांत्वना देने की कोशिश की, लेकिन गायत्री उसी तरह बुत-सी बनी रही। एकदम निश्चिल, अपलक, बौराई-सी। माथुर की निगाहें उसी के चेहरे पर थीं। उसकी चिन्ता कुछ बढ़ने लगी थी। वो सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाये, जब महिलाओं के बीच में रास्ता बनाता हुआ कमल अपनी माँ के पास आ गया। हैरानी और परेशानी उसके चेहरे पर भी झलक रही थी। पीछे से माँ के गले में बाँहें डाल दीं। कंधे पर ठोड़ी टिकाकर बोला, ‘‘पिताजी को क्या हुआ है माँ ? वो ज़मीन पर क्यों लेटे हैं ?...और घर में ये इतने सारे लोग...दिन में इस वक्त तो पिताजी कभी नहीं सोते...तू भी ऐसे क्यों बैठी है चुपचाप ? उन्हें कहती क्यों नहीं कि बहुत थके हैं तो चलकर पलंग पर सोयें...चल उठ, पिताजी को भी जगा।...तू कुछ बोलती क्यों नहीं ? गुस्सा है मेरे से ? मैंने तो आज कोई भी गंदा काम नहीं किया।...सवेरे ही नहा लिया था...स्कूल से आके दूध भी झट पी लिया था, फिर क्यों नाराज़ है ?..कुछ बोल न माँ।...’’
माँ कुछ नहीं बोली, तो बालक का मुँह उतर गया। उसकी हैरानी और परेशानी और भी ज़्यादा बढ़ गई थी। उसकी उदास आँखें डबडबा आईं। माँ के कंधों पर अपनी बाँहों की पकड़ ढीली करके वो सीधा खड़ा हो गया। उसका एक हाथ अब भी माँ के कंधे पर था। गहरी उदासी भरे-स्वर में बोला, ‘‘तो क्या धरमा सच कह रहा था माँ कि मेरे पिताजी को ऊपर वाले भगवान ने बुला लिया है ? यहाँ नीचे वाले भगवान को तू रोज़ पूजा करती है, चल के कहती क्यों नहीं उनसे कि वो ऊपर वाले भगवान से कहें, हमारे पिताजी को वापस कर दें। तेरी बात को टालेंगे थोड़े ही...कितने-कितने भजन गाती है तू तो उनके...कितने भगवान हैं ये माँ ? ऊपर वाले, नीचे वाले ? मैं गया था तेरे भगवान के पास...मेरी बात नहीं मानी...बच्चा समझकर टाल दिया होगा, जैसे कई बार तू और पिताजी भी तो कह देते हैं, तू अभी बच्चा है...’’
काफ़ी देर के बाद गायत्री के चेहरे पर पहली बार ज़रा जुंबिश नज़र आई। उसके होंठ थोड़े हिले, उसकी आँखें डबडबा आईं, उसका दायाँ हाथ धीरे-धीरे अपने बाएँ कंधे की तरफ़ बढ़ा और कमल के हाथ पर हल्का-सा दबाव पड़ा।
कमल की आँखें बरसने लगी थीं। वो बोला, ‘‘अब उठ न माँ, चल अपने भगवान के पास..अब तू नहीं उठेगी तो देख लेना मैं भी....’’
बिजली की सी तेज़ी के साथ, गायत्री ने कमल का हाथ पकड़ कर उसे अपनी तरफ खींचा और कस के सीने से लगा लिया। उसके भीतर का बाँध टूट गया था। उसकी आँखें बरसने लगीं, और वो इतने ज़ोर से बुक्का फाड़ के रोई कि सारा वातावरण थरथरा गया। कुछ देर बाद कमल को अपनी गोद में लिटाकर बार-बार उसे चूमने लगी। चूमती रही बौराई-सी ! बेटे के आँसुओं में अपने आँसू मिलाती रही बड़ी देर तक। आसपास भी कोई आँख ऐसी नहीं थी जो नम न हुई हो। डॉक्टर माथुर की भी नहीं, पर उसकी आँखों में आँसुओं के साथ-साथ संतोष की झलक भी थी।
अगले दिन ग्यारह बजे के क़रीब शवयात्रा शुरू हुई। कई बड़े-बूढ़ों का कहना था कि किसी अर्थी के साथ उन्होंने इतनी जनता आज तक नहीं देखी।
तेरहवें दिन पंडित मुकंदी लाल रस्म अदायगी और हवन करवा चुके तो गायत्री ने उपस्थिति लोगों के सामने हाथ जोड़कर कहा था, ‘‘पिछले कुछ दिनों में मेरे अनेक हितैषियों ने कहा है कि मैं अपने आपको अकेली न समझूँ, वे सब मेरे साथ हैं। आपके अपार स्नेह और आशीर्वाद ने मुझे सचमुच बहुत ही बल दिया है, शारीरिक भी और मानसिक भी। वरना उस दिन जब भगवान ने अचानक पति का सहारा मुझ से छीन लिया, तो मैं सचमुच टूट गई थी, लेकिन आप लोगों के अपनेपन के सहारे ने मुझे फिर से खड़ा तो किया ही है मुझ में जीने की नई प्रेरणा फूँकी है, और जीवन की चुनौतियों का सामना करने का साहस भी मुझे दिया है। इसके लिए मैं हमेशा आप सबकी ऋणी रहूँगी। मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में भी मैं आप सब के स्नेह और आशीर्वाद का पात्र बनी रहूँगी।...जैसा कि अभी-अभी पंडित जी ने कहा, मरता केवल शरीर है, आत्मा नहीं। वो तो सिर्फ़ चोला बदलती है। आज मैं महसूस करती हूँ कि मेरे दिवंगत पति का प्यार ही चोला बदलकर आप लोगों के अपनेपन के रूप में हज़ारों गुना होकर मुझे मिल गया है। पंडित जी ने यह भी कहा था कि जीवनधारा निरंतर बहती रहती है, कभी रुकती नहीं, रुकनी भी नहीं चाहिए। इस अवसर पर मैं आपको विश्वास दिलाना चाहती हूँ कि जब तक ईश्वर की इच्छा है, मैं भी अपने जीवन प्रवाह को बहता रखने के लिए अपनी कोशिशों में कमी नहीं आने दूँगी। फ़िलहाल मैंने निर्णय लिया है कि अगले रविवार से कीर्तन का कार्यक्रम पहले की तरह ही जारी रहेगा। आपका साथ और सहयोग मुझे मिलता रहेगा, इसमें रत्ती-भर भी सन्देह नहीं। प्रणाम।’’
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